शंखध्वनि — काजल घोष

Aaj matri dibas hai
Meri maa jo ab mere beech nahi hai
Unko sashradha pronam
Unke litelye aj ki kabita

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हिन्दी कविता
शंखध्वनि
काजल घोष

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माँ —
आज तुलसी मंच में अंधेरा क्यों है
किसी ने दीपक जलाया क्यों नहीं
दादाजी के गले की माला सूख कब से गयी
किसी और को याद क्यों नही आयी ये बात

माँ —
आँगन में तुम्हारी सफेद साडी
आज क्यों नहीं सूख रही रोज की तरह
पूजाघर में सन्नाटा क्यों है
घन्टे की आवाज भी नहीं आ रही
सूर्योदय तो कब का हो चुका है
लाली पूरे आसमान को शर्मा रही है
कपोल लाल है जमीन पर हरियाली
घास पर ओश की बूंद

माँ —
पर तुम कहाँ हो—-
श्यामली गाय को चारा अभी तक नहीं मिला
दादी के पूजा का समय हो चला
गंगाजल धूप पूजा के फूल
अभी तक पूजाघर में नहीं सजा
बरामदे पर किसी ने भी
आसन तरीके से नहीं रखे
पुजारी जी कहाँ बैठेंगे

माँ —-
इन प्रश्नों का उत्तर कौन देगा तुम्हारे सिवाय
जानती हूँ–
हर प्रश्न का जबाब नहीं होता
सिर्फ नीरबता कुछ कहना चाहती है
प्रकृति चुपचाप सब देखती है
आज जो है कल वही कहाँ खो जाता है
किस दुनिया में जाकर छुप जाता है

माँ—-
क्या क्या सिखा कर गयी थी मुझे
कैसे भूल गयी सब
कल रात छत पर गयी थी तुम्हे ढूंढने
आकाश में सितारों के बीच
पहचान नहीं पाई तुम्हे
माँ का प्यार किस पलड़े में तोला जा सकता है
यह क्यों नहीं सिखाया तुमने

माँ—
जिस घर की हर सुबह और शाम
शंख ध्वनि से शुरू होता है
यह बता कर नहीं गयी कि
कल से शंख ध्वनि कौन बजायेगा
कौन तुलसी मंच पर प्रदीप जलायेगा
कल से पूजाघर फूलों से कौन सजायेगा

माँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

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काजल
कविता गृह
कलकत्ता

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